
आप इसे आलेख कहें या कुछ और कोई खास फर्क नहीं पड़ता….. सच कहूँ तो भड़ास निकालने की इस अनाम विधा का प्रारूप पिछले कई महीनों से मन के अंदर उमड़-घुमड़ रहा था….. अकादमिक ज़ुबान मे जिसे ब्लूप्रिंट कहता हैं वो तो तैयार था लेकिन इसे ज़िंदा तौर पर उतारने का मौका नहीं मिल रहा था। मध्यम वर्ग का आम तौर पर ‘जागरूक’ इंसान देश और दुनिया के हालात पर अपनी चिंता और पहलकदमी के लिए बड़ा मसरूफ़ रहता है, उसे ये लगता है कि अगर उसने किसी एक दिन या खास तौर पर किसी एक शाम देश के लिए सोचा नहीं तो देश के मिजाज और माहौल का बड़ा नुकसान हो जाएगा। ये प्रजाति विलुप्त होने के बजाय दिनोदिन प्रजनन क्षमता के सिद्धांत को शर्मसार करते हुए बढ़ती ही जा रही है। मैं स्वयं को इस प्रजाति का अभिन्न हिस्सा मानता हूँ… अतः मेरी व्यथा या यूं कहें की मेरी कथा का आगाज इसी प्रजाति के रस्मों-रिवायत से होता है। इस प्रजाति के व्यक्ति की एक और खासियत है कि दिन भर के काम धंधे के बाद घर पहुँचने पर बच्चों और बीवी से हालचाल और उनका मूड जानने से पहले वह देश का मूड जानने की चिंता करता है, अतः मूंह हाथ धोते ही वह टेलीविजन आन करता है।
इस कथा का सिलसिला इन्हीं शामों के साये में कुछ ऐसे शुरू हुआ……. पिछले कुछ महीनों से एक विचित्र सी चीज हो रही है……. शाम के ढलते ही सारे एलेक्ट्रानिक चैनल पर प्रधानमंत्री बन जाने के धमकी भरे अंदाज़ में एक व्यक्ति( खुद को युग पुरुष मानते हैं )…… रंग बिरंगे कपड़ों मे सजकर अवतरित होते हैं। कमाल है! ये व्यक्ति-विशेष पूरे देश के मर्म और मन को जान लेने का दावा करते फिर रहा हैं और यह ही नहीं इस दावे के पक्ष में उनके पास आंकड़े भी हैं, ऐसा वो लगातार बताते रहे हैं …. लेकिन वो ‘दिव्य आंकड़े’ सिर्फ युगपुरुषों को उपलब्ध है अतः आप आंकड़ों की बानगी उनसे न पूछिए। वैसे भी टेलेविजन एक-पक्षीय सम्प्रेषण का नायाब माध्यम है अतः गीता दत्तजी के उस गाने(साभार- साहब, बीवी, ग़ुलाम) की तरह, ‘मेरी बात रही मेरे मन में….’, हम सवालों को खड़ा होने से पहले ही बिठा देते हैं। गाल बजाने की अदभूत क्षमता है इस युगपुरुष में और तकनीकी ने तो गाल बजाने की इस कला को नई उचाइयाँ प्रदान कर दी हैं…. देश नीति हो या विदेश नीति, कोयला हो या सोने का मामला, मंहगाई के प्रश्न हो या रुपए की ढलान, ‘मैगी…. दो मिनट बस तैयार’ की तर्ज़ पर इनके पास सारे मामलों का हकीम लुक़मान से बेहतर इलाज़ है। पहले ये बिना शर्म-संकोच के छह करोड़ गुजरातियों के बदले में बोला करते थे लेकिन पश्चात-गोवा के, अब ये बिना लागलपेट या शर्मो-हया के एक सौ बीस या तीस करोड़ हिंदुस्तानयों के बदले में बोलने लगे है। ये मेरे, आपके और हमारे बारे में हमसे ज़्यादा जानने का लगभग दावा प्रतिदिन करने लगे हैं। धंधई आक्रामकता और गुस्से को(असली नकली के भेद में मैं नहीं जाता) आभूषण की तरह ये पहनते हैं और इस आभूषण को खुदरा और थोक में बेचना इनके नागपुरी राष्ट्रवाद का अंतरंग हिस्सा है। और शायद ये ही वजह है कि बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत इस गुस्से के अस्सी के दशक के जनक को दरकिनार कर नागपुर के संचालको ने बिक्री की कमान मौजूदा युग पुरुष को सौंप दी। आखिर साख तो इस युग पुरुष ने बनाई ही है……. ‘एक ऐसा राज्य जहां वैष्णव जन तो तैने कहिए…’ की गूंज थी बापू के दिनों से, वहाँ गुस्से और मध्ययुगीन आक्रामकता को खूबसूरती से बेचते हुए तीन चुनाव जीत चुका है….. अतः ईमानदारी की बात यह है कोई दूसरा इस विधा में इस युग पुरुष का दूर दूर तक सानी नहीं है।
तो रही बात मन की कथा की, तो सिर्फ इस गुस्से से प्रतिदिन रूबरू होना ही मेरी पेशानी पर उग आए लगभग पर्मानेंट ‘बल’ का कारण नहीं है। शाम ढलते ही जैसा की मैंने पहले कहा, लगभग सभी चेनल्स इन दिनों इस गुस्से और मध्ययुगीन आक्रामकता को दूकान सजाकर बेचने लगते है। घरेलू और वैश्विक नीतियों पर मतभेद के बरक्स हमारे एंकर महोदय या महोदयागण समान रूप से इस गुस्से को ‘डिजाइनर’ और ‘आकर्षक’ बनाकर पेश करते हैं। एक एंकर दूसरे से ज़्यादा गुस्से मे दिखता है और सभी समवेत स्वर में अपने आडियन्स से भी उतने ही गुस्से की उम्मीद करते है। ठीक उस युगपुरुष की तरह इन एंकरगण का भी मानना है कि जिसे गुस्सा या क्रोध नहीं हो रहा उसकी ‘राष्ट्रभक्ति’ में कोइ न कोई खोट तो ज़रूर हैं। इस प्रतिस्पर्धी आक्रामकता और गुस्से की लगातार अभिव्यक्ति(बीच के कमर्शियल ब्रेक को छोड़ कर) से कई दफा ये खौफ पैदा होने लगता है कि कहीं इनके ‘शो’ के खत्म होते होते लोग गली-मुहल्लों में एक दूसरे के प्रति इस आक्रामकता का इज़हार करते हुए LOC तक भी न पहुँच जाएं और कहें अपने सैनिकों से, ‘भाई ! लाओ अपनी बंदूक और मशीनगन हमे दो, तुम से नहीं हो रहा, अब हम खुद कर लेंगे’, ‘तुम दो सर नहीं ला पाये, हम (युगपुरुष की उस सहायिका नेत्री के कथन के आलोक में) कम से कम दस सर लाएँगे’।
खैर लोग कर पाएँ या नहीं, लेकिन एक स्वनामधान्य एंकर है, प्रतीत करवाते हैं कि वो लगभग सभी विषयों के ज्ञाता है….. भूगर्भ विज्ञान से लेकर राकेट विज्ञान तक, और क्रिकेट की बारीकियों से लेकर राजनीतिज्ञों की नज़दीकियों पर उनका बराबर का दखल है। ये एंकर महोदय भी ठीक उस युगपुरुष की तरह राष्ट्र की भावनाओं के इकलौते साधक और वाहक हैं। पिछले दौर में एक फिल्म आई थी, ‘अल्बर्ट पिंटों को गुस्सा क्यूँ आता है’, पिंटों को तो शायद किसी खास वजह से गुस्सा आता था, लेकिन इन एंकर साहब को हरेक बात पर आता है—चाहे प्याज की कीमत हो या सरकार की नीयत….’ हर रात नौ या साढ़े नौ बजे पूरा का पूरा देश और उसकी भावनाएं उस पर हावी हो जाती हैं(गाँव देहात में दन्तकथाओं में किसी पर देवी चढ़ जाने के बारे में सुना तो होगा ही), ठीक उसी तर्ज़ पर, इस एंकर पर देश की भावनाएं चढ़ जाती है। और फिर उसके बाद तो इस एंकर के क्रोध और गुस्से के क्या कहने…….डांट और फटकार इनके आथित्य सत्कार का अद्भुत तरीका है…. बेचारे अतिथि राष्ट्र की भावनाओं का सम्मान करते हुए चुपचाप बैठे रहते हैं…. प्राथमिक विद्यालय के उन छात्रों की तरह जो मास्टर साब के गुस्से और कोप से विरोध के बावजूद भी किताब में(कैमरे में!) आंखे गड़ाये पड़े रहते हैं। बीते दिनों मुझे कई बार ये एहसास हुआ की ये तो अच्छा है कि परिष्कृत युद्ध यंत्र जैसे मिसाइल आदि सेना के संरक्षण में रहते है, और आम तौर पर बाज़ार में उपलब्ध नहीं हैं वरना बिना नागा ये एंकर साहब प्रतिशाम कम से कम दो तीन मिसाइल चीन और पाकिस्तान पर ज़रूर दाग देते।
इन दिनों हमने ये भी देखा है की गुस्सा और आक्रामकता जब विक्रय की आकर्षक वस्तु हो जाती है तो नफरत की तिजारत को कई शेयर होल्डर मिलने लगते है। मेरी मध्यवर्गीय व्यथा का एक पक्ष यह भी है। सेंसेक्स उतना संवेदनशील नहीं है अतः नहीं बताएगा उसे छोड़िए, लेकिन मैं अपने आसपास गली मुहल्लों में ये शेयर खुले आम बिकता देख रहा हूँ और ग़ालिब साहब को याद करता हूँ—‘इंसान के होते हुए इंसान का ये हश्र, देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूँ’।
लेकिन करें क्या! मध्यम वर्ग का आदमी बावजूद तमाम निराशा और कुंठा के, यह मानता है कि, ‘मक़्तबे इश्क़ का दस्तूर निराला देखा, उसको छुट्टी ना मिली जिसने सबक याद किया’ हम ने इस सबक को घुट्टी में पी लिया था कि जिस दिन या शाम हम ने चिंता नहीं की तो तत्क्षण मुल्क का बड़ा नुकसान हो जाएगा। और शायद ये वजह है कि हर शाम मैं आप सबों की तरह टेलीविज़न से दूर नहीं हो रहा और टेलीविज़न इस गुस्से की नुमाइश से दूर नहीं हो रहा। बड़ा ही संकट है भाई, कोई तो बताए कि ‘गुस्से और आक्रमण का ये दौर खत्म होने का नाम क्यूँ नहीं ले रहा’…….. कई संजीदा दोस्तों का कहना है कि 2014 होते ही आक्रमण और गुस्से का यह संक्रमण काल समाप्त हो जाएगा….ज़िंदगी(मेरा मतलब टेलीविज़न से है)फिर से ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ…….’ वाले दिनों की और लौट जाएगी। शायद ये वज़ह है कि मैं भी कई लोगों कि तरह 2013 में ही 2014 होते हुए देखना चाहता हूँ। कुछ दोस्त ऐसे भी है, ‘जो कहते है की ना नौ मन तेल होगा और ना राधा नाचेगी’, उनका आशय है कि तेल की पूरी खेप उत्तरप्रदेश में है और वो दोनों नौ मन तेल उपलब्ध नहीं कराएंगे।